Sun 09th January 2022

मेरा ओर न छोर

मेरा ओर न छोर

अपनी बात
कविताएँ, सपने और संघर्ष, ये तिकड़ी कहीं न कहीं मुझे परिभाषित करती है। एक अच्छी बात थी कि पिताजी सेना में थे पर पढ़ने का शौव़फ़ था लिहाजा मेरे घर में पुस्तकें पर्याप्त मात्र में थी, विवेकानंद की तस्वीर, रामकृष्ण परमहंस की जीवनी---श्रीमद्भगवदगीता पर विनोबा भावे, ओशो की व्याख्या, स्वेट मॉर्डन की सेल्फ हैल्प सीख--- प्रेमचंद की निर्मला, रांगेय राघव की मेरी भव बाधा हरो--- को पार करते हुऐ मुक्तिबेाध की कविताएं नजर से गुजरी ओर समा गई अंदर---‘कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाये--- सब पर जाने को तिर आना चाहता हूँ।’ इसी बीच न जाने कब सपनों के अंकुर फूटने लगे, कलाकार बनने के, घर परिवार के संघर्ष की बीच यहां कविता खड़ी मिली जिसने हौसला दिया, सहारा दिया--- नाटक, कविता, कहानी इन सबका गहन अध्ययन लखनऊ के आचार्य नरेंद्र देव पुस्तकालय में खूब चला--- साइकिल से जब शहर की सड़कें नाप रहा होता तो कविता धूप में छाया और रात में लैंप पोस्ट बन जाती---
शहर अपना लखनऊ था पर संघर्ष ने किसी तरह मुरव्वत नहीं बरती कभी, पर कविता हर बार बचा ले जाती थी--- जब जब सांसें टूटने लगती, सपने मुरझाने लगते--- मैं सच कहता हूँ यही उगती थी रोशनी बनकर, इस बात मेें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
एक दिन सपने मुझे सपनों के शहर में ले आये। जहाँ ख़ुद को जिंदा रखना और सपनों को परवाज देना बड़ी चुनौती थी वहां भी---
जहाँ धर्मवीर भारती की कविताएँ--- ‘अंधायुग’, ‘प्रमथ्यु गाथा’, ‘कनुप्रिया’ ने मुझे ऊर्जा दी है।
वहीं अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ ने कलाकार की साधना को साधने में मदद की। देखा जाय तो---
कविता लिखना मेरे लिये वैसा ही है जैसे कि दर्द में कोई आपके पीछे
कंधे पर हाथ रख दे--- कहे (कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा)--- कविता लिखना मेरे लिए ठीक वैसा ही है जैसे कि अंधेरे में जुगनू की चमक---एक रोशनी की किरण--- कविता लिखना मेरे लिए वैसा ही है जैसे अकेलेपन में किसी का साथ--- कविता लिखना मेरे लिए वैसे ही है जैसे कि कोई
हमदर्द---
उदासी में, संकट में, संघर्ष में, खुशी में, चाहत में, प्रेम में सब जगह साथ रहती है कोई हो ना हो--- अंधेरा हो या उजाला, मौसम कैसा भी हो, हमेशा रहती है--- कविता होती है, उगती है, उपजती है, चलती है मेरे अंदर, कहीं न कहीं मेरा ही रूपांतर होती है कविता---
और यह कविता आप तक पहुंचे जरूरी नहीं---कविता उगने की घटना मेरे भीतर कभी भी हो सकती है--- नहीं तय होता पहले से कुछ भी, हालांकि नाकाम कोशिश मैंने कई बार की है---दूसरी बात- कविता होती है तो मैं मुझ तक पहुंच जाता हूँ, इस बार मित्रें ने, स्नेहीजनों ने, रसिक पाठकों ने आग्रह किया कि इसे सबके सम्मुख आना चाहिए--- प्रमुख रूप से रचनाकार सूरज प्रकाश जी मित्र कुमार विजय, डॉ रवींद्र कात्यायन, रचनाकार विजय पंडितजी, दिलीप
कुमार--- इन सबके आग्रह से मुझे बल मिला और कविता संग्रह प्रकाशित करने के लिए तैयार हुआ। इण्डिया नेटबुक्स के डॉ- संजीव कुमार इसे प्रकाशित करने के लिए राजी हुए--- सभी का हृदय से आभार।
अब ये आपके हाथों में है। इसे आप अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं।
धन्यवाद।
अरुण शेखर